लड़कियां लोहे के दरवाजों में बंद हैं:रात 2 बजे दिन की शुरुआत; बाबा कृष्ण बनकर, लड़कियों को रास रचाने के लिए उकसाता था

 

इस रिपोर्ट में कोई सिसकी नहीं। कोई डबडबाई आंख यहां नहीं दिखेगी। न कोई चीख मारकर रोएगा, न खतरे गिनाएगा। यहां सिर्फ एक इमारत है। बंद दरवाजे हैं और हैं लड़कियां। दुनिया से कट चुकीं वे लड़कियां, जो यूट्यूब पर ‘बाबा’ की वीडियो देखकर घर छोड़ आईं और रोहिणी के एक आश्रम में कैद हो गईं। वो कैदखाना, जहां से बाहर जाने का कोई रास्ता नहीं।

विजय विहार- उत्तरी दिल्ली की एक कॉलोनी। गलियों में बंदनवार की तरह सजे हुए आम मकान। सिवाय एक इमारत के! 5 मंजिला ये बिल्डिंग लोहे की जालियों से घिरी है। सामने लोहे का गेट दीवार से ऐसे सटा हुआ कि भीतर का कुछ दिखाई न दे। बिल्डिंग के ऊपर पीली पट्टी में लिखा है- आध्यात्मिक विश्वविद्यालय।

दिसंबर 2017 में ये रिहायशी कॉलोनी पुलिस के सायरन से गूंज उठी। जेल की तरह बंद इमारत को चारों ओर से घेर लिया गया। घंटों सर्च ऑपरेशन चला। कई ताले टूटे और बरामद हुईं 40 नाबालिग लड़कियां, जो खुद को ‘बाबा’ की कैद में बता रही थीं। बाबा यानी वीरेंद्र देव दीक्षित, जो रेप समेत कई गंभीर आरोपों के बीच फरार है।

परदों के बीच कथित पीड़िताओं को शेल्टर होम पहुंचाया गया। विश्वविद्यालय का दावा करता आश्रम ब्लैक लिस्ट हो गया। पुलिस की गाड़ियां और कैमरे के फ्लैश वापस लौट गए। फिर लंबी चुप्पी।

आश्रम में अब भी 100 से ज्यादा महिलाएं हैं, जो ‘भगवान’ के आने का इंतजार कर रही हैं।

हाल में दिल्ली हाईकोर्ट ने मामले को दोबारा उठाते हुए कई सवाल किए, कई सुझाव भी दिए। इस बीच मैंने आश्रम के भीतर जाकर वहां के हालात देखने की कोशिश की। पता चला, ये पहला मौका था, जब इमारत के भीतर किसी पत्रकार की एंट्री हो सकी। मुझसे दस्तखत लिए गए। कार्ड मांगा गया। आने का मकसद पूछा गया और इंतजार करने को बोल दिया गया।

तकरीबन पौन घंटे। इस बीच आसपास झांकने की कोशिश की। जिस दरवाजे से मैं आई थी, उस पर दिन में भी दो ताले लटकते हुए। साथ में कई कुंडियां। यानी दरवाजा कई हिस्सों से बना था, जो जरूरत के मुताबिक खोले-बंद किए जा सके। जैसा कि ऊपर की तस्वीर में आप देख पा रहे हैं।

छत में सबसे ऊपर से लेकर नीचे तक लोहे के सरिए, जिनसे रोशनी आ सके, लेकिन सिर्फ रोशनी। अंदर रहती लड़कियों का बाहर के संसार से कोई नाता नहीं।

ठीक 12 बजकर 15 मिनट पर मुझे खास दरवाजे से भीतर के हॉल में ले जाया गया। खास इसलिए कि वहां एक ही कमरे के कई दरवाजे हैं। कमरे में CCTV के आगे बैठने के लिए कुर्सियां लगी हुईं। थोड़े इंतजार के बाद गुलाबी साड़ी में 4 महिलाएं आती हैं। उनके साथ ही पहुंचती हैं, दो और लड़कियां, जिनके हाथ में कैमरे हैं। यानी तीन तरफ से मेरी रिकॉर्डिंग की जा रही है।

सामने बैठी दो महिलाएं अमेरिका से बाबा के आश्रम पहुंची। कैसे? वीडियो देखकर। क्यों? भगवान से मिलने। और परिवार? वे मोह में भटक गए हैं, तो उनसे बगावत करनी पड़ी।

साल 2017 के आखिर में आश्रम में फंस चुकी कई लड़कियों के परिजनों ने ही पुलिस में शिकायत की थी। उनका आरोप था कि उन्हें बच्चियों से मिलने नहीं दिया जाता। कई दिनों-घंटों इंतजार के बाद मिलने की इजाजत भी मिलती है, तो अकेले में नहीं। वे अपनी ही बेटियों को हुलसकर गले नहीं लगा सकते। कुछ ने बयान दिया कि नशे के कारण उनकी बेटियां ‘बुत’ की तरह हो गई हैं।

हैदराबाद के एक पिता अब भी दिल्ली हाईकोर्ट में बेटी- वापसी की लड़ाई लड़ रहे हैं। कोर्ट में उन्होंने आरोप लगाया कि नशा दे-देकर उनकी बेटी लता का ब्रेनवॉश कर दिया गया। अब वो बाहर की दुनिया में लौटना नहीं चाहती। 70 साल के इस पिता से तो मेरी बात नहीं हो सकी, लेकिन उनकी बेटी यानी लता सामने थी।

वही बेटी, जिसे ब्रेनवॉश्ड कहा जा रहा था। हाथों में अदालती कागजों का पुलिंदा लिए वे कहती हैं- बाजार जाने पर बच्चा अगर खिलौनों की जिद करे, तो क्या उसकी बात मान लेंगे! वो तो बच्चा है। हमें ही डिसाइड करना होगा कि क्या सही है।

ये वो लॉजिक है, जिसके सहारे ये महिला अमेरिका से नैनो टेक्नोलॉजी में PhD करते हुए सीधे दिल्ली के इस आश्रम पहुंच गई। माता-पिता को बताए बिना। अब बूढ़े पेरेंट्स अदालत के चक्कर काट रहे हैं कि एक बार उन्हें उनकी बेटी से अकेले में मिलने का मौका मिल सके।

इस बीच सामने बैठी दो और महिलाएं भी बताती हैं कि कैसे उनके परिवार भगवान से मिलने में रोड़ा डाल रहे थे।

जब मैं दरवाजे पर पहरेदारी की बात पूछती हूं, तो सुनीता कहती हैं- आजकल वक्त ही ऐसा है। हर किसी को अपनी सेफ्टी के लिए दरवाजे बंद रखने होते हैं। जब लोग सही तरीके से आएंगे, अपना नाम बताएंगे, एंट्री करेंगे, जैसे आपने की- तो हम उन्हें भीतर क्यों नहीं आने देंगे।

आपके पड़ोसी? वे भी आपके यहां नहीं आते, जबकि ये तो आश्रम है। पता नहीं! हम तो सबको बुलाते हैं, लेकिन वे नहीं आना चाहते।

इसके बाद लंबी चुप्पी, जिसमें आंखों में ही तय होता रहा कि आगे का मोर्चा कौन संभालेगा। तीन कैमरे मुझ पर लगातार तने रहे और सीधे सवालों के भी गोलमोल जवाब मिले।

बाबा फरार हैं, फिर आश्रम का खर्चा-पानी कैसे चल रहा है? इस पर पहले चारों एक-दूसरे को देखती हैं, फिर एक कहती है- हम घर-बार वाली हैं, हमारे परिवार मदद करते हैं।

गुलाबी साड़ी, चांदी रंग बिंदी और करीने से सिमटे बालों वाली ये महिलाएं बोलने-चालने में आश्रम की सबसे तेजतर्रार महिलाओं में से होंगी। हालांकि, कड़े सवालों पर वे भी डगमगा जाती हैं।

वक्त सरक रहा था। लगातार रिक्वेस्ट के बाद आखिरकार मुझे अंदर जाने की मंजूरी मिली। कैमरा पीछे-पीछे चलता रहा। लोहे की घुमावदार सीढ़ियों से होते हुए मानो किसी भूलभुलैया में जा पहुंची। हर तरफ सफेद दीवारें, सफेद चादरें और लोहे के दरवाजे ही दरवाजे। मुझे साथ ले जा रही महिला बार-बार रुककर पक्का करती कि मुझे कहां से लेकर जाना है। मानो कोई गलत रास्ता भी हो।

गलियारों से होते हुए मैं एक हॉल में पहुंची। प्रेयर हॉल की दीवारों पर मुरली लिखी हुई थी। यानी ईश्वरीय संविधान (इस टर्म का इस्तेमाल सभी बार-बार करती रहीं।)। एक जगह लिखा था- “आवाज से हंसना न है। जोर से हंसना भी एक तरह का विकार है।” मैं याद करने लगी, पिछले दो घंटों में किसी को हंसता हुआ नहीं देखा। भिंची हुई मुस्कान जरूर थी। जैसे सख्त ट्रेनिंग से आई हो।

मुरली पढ़ने-पढ़ाने के बीच औरतों का एक झुंड वहां जमा हो गया। वे महिलाएं, जिनसे बात करके मैं ‘तसल्ली’ कर सकूं। तैयार महिलाएं। ज्यादातर गुलाबी साड़ियों में। चेहरों पर रट लेने का भाव।

हरियाणा से आई आशा कहती हैं- भगवान दुनिया में आ चुके हैं। ऐसे में बाहर भला क्यों रहती! नर्म लेकिन एकदम सपाट आंखें। कंप्यूटर साइंस में बैचलर्स कर चुकी आशा मानती हैं कि उनकी पुरानी पढ़ाई बेकार गई। असल शिक्षा वही है, जो यहां मिल रही है।

पास ही में एक और चेहरा है, जो नेपाल से आया है। वे कहती हैं- दुनिया ने कैसे-कैसे बम बना लिए। तीसरा विश्वयुद्ध होने ही वाला है। जब दुनिया तबाह होगी, तब हम बच जाएंगे।

आपको क्यों लगता है कि आप बच जाएंगी?

इस पर वे दूसरे मजहब का हवाला देते हुए कहती हैं- वहां भी लिखा है कि जब कयामत आएगी, खुदा के बंदे मौज कर रहे होंगे। हम बच जाएंगे, क्योंकि हम भगवान के पास हैं।

तीसरे चेहरे की तैयारी कुछ कच्ची थी। मध्यप्रदेश के बैतूल की राधिका बात-बात पर झेंपती हैं। बोलते हुए अटकती हैं। यहां तक कि चेहरे पर डर का भाव भी तैरता है। जवाब हालांकि वे भी वही देती हैं, जो बाकियों ने दिए- भगवान दुनिया में आ चुके हैं…। यहां रहेंगे तो वे हमें मिलेंगे…। दुनिया खत्म होने वाली है, लेकिन हम बचे रहेंगे…।

रूटीन क्या है आपका?

सुबह (रात) 2 बजे जागकर मुरली सुनते हैं। फिर पढ़ाई। इसके बाद बाकी सारे काम। खाना पकाना, चुनना-बीनना।

लेकिन 2 बजे तो रात होती है!

सुनकर खिलते नारंगी रंग की साड़ी लपेटे हुए राधिका की आंखें हंसते हुए सहमती हैं। सहमकर हंसती हैं। फिर बोलती हैं- वो दुनिया के लिए। हमारे लिए तो रात 2 बजे अमृत बेला है।

इंटरव्यू खत्म हो चुका। अब लगभग जेड प्लस सिक्योरिटी के बीच मुझे नीचे लौटना है। इस बीच सामने बिछी चादरों पर नजर जाती है। ये सिलाई मशीनें हैं, जिन पर लड़कियां हाथ आजमाती हैं,, लेकिन ढंकी हुई क्यों! ऐसे ही।

गलियारों से गुजरते हुए देखती हूं कि कोई भी रूम खुला हुआ नहीं जो भीतर झांका जा सके। खिड़कियां तक मुंदी हुईं। एक कमरा जो खुला था, उसमें साठ पार की महिलाएं नजर आईं। इस बीच लगभग हकालते हुए ही मैं नीचे पहुंचाई जा चुकी थी। निकलते हुए सबने कई बार भगवान का ज्ञान पाने के लिए यहां आने को कहा। मुंडी डुलाते हुए मैं जब बाहर निकली, तब तक कैमरा मुंह पर तना हुआ था।

वीरेंद्र देव फरार है, लेकिन उसकी छाया अब भी आश्रम पर डोलती है। तभी तो बाहर निकलकर जब हम बात करने की कोशिश करते हैं, तो कोई भी ऑन-कैमरा कुछ कहने को राजी नहीं होता। बहुत बोलने पर एक पड़ोसी कहता है- हमने आज तक किसी लड़की का चेहरा नहीं देखा। कोई बाहर नहीं आती। कहीं जाती भी हैं तो उनकी अपनी गाड़ियां होती हैं।

साल 2017 की आंखों-देखी जानने के लिए मैंने दिल्ली महिला आयोग की अध्यक्ष स्वाति मालीवाल से बात करने की कोशिश की, लेकिन संपर्क नहीं हो सका।