
रायपुर के पंडित रवि शंकर शुक्ल विश्वविद्यालय में हिंदी ग्रंथ अकादमी का दफ्तर है। हिंदी भाषा को भारतीय शिक्षा व्यवस्था खासकर उच्च शिक्षा में मजबूत जरिया बनाने का जिम्मा इसी अकादमी पर है। बुधवार को हिंदी दिवस के दिन यहां वीरानी नजर आई। यहां के कर्मचारियों के लिए ये कोई नई बात नहीं थी, अलसाई सी दोपहर में यहां दिन काटने के सिवा इनके पास कोई चारा नहीं।
बीते तीन सालों से अकादमी के इस दफ्तर में कोई काम काज नहीं होता। यूनिवर्सिटी कैंपस के आखिरी छोर में दफ्तर है। कोई यहां आता भी नहीं। हिंदी दिवस पर दिखावे भर के लिए भी कोई कार्यक्रम यहां नहीं हुआ। सुनसान से दफ्तर में तीन-चार कर्मचारी दिखे।

पीकर रोज आते हैं साहब 
विक्रय सहायक के पद पर यहां आशेश्वर वर्मा काम करते हैं। यहां के 5 कर्मचारियों में एक मात्र परमानेंट कर्मचारी हैं। सूत्रों ने बताया कि हर रोज शराब पीकर दफ्तर आते हैं। जब दैनिक भास्कर का कैमरा पहुंचा, वर्मा सुस्ता रहे थे। कैमरा देख भौचक रह गए। लड़खड़ाती जुबान में बोले- आइए, कैसे क्या काम है। रिपोर्टर ने अपना परिचय देकर जब पूछा कि क्या आपने शराब पी रखी है तो बोले नहीं मेरी तबीयत खराब है दवा ली है। अचानक मीडियाकर्मी को देख भाव भंगिमाएं पूरी तरह से नियंत्रण करने का प्रयास करते रहे।

बाकी टिफिन खाकर लौट जाते हैं 
युनिवर्सिटी कैंपस के इस दफ्तर में बाकी के 5 कर्मचारी भी सुबह समय पर दफ्तर खोलते हैं। आस-पास शांति होती है कि दोपहर में यहीं सोफे पर हल्की नींद ले लेते हैं। करने को यहां कुछ है नहीं तो दोपहर में टिफिन खाकर शाम होते ही लौट जाते हैं। कैमरे पर कुछ न कहने की शर्त पर खुद यहां के एक कर्मचारी ने अपना यही दिनचर्या बताया। उसने कहा कि तीन सालों से लगभग यहां यही हाल है। यहां 20 से 25 ऐसे स्टाफ की जरूरत है, जिनकी दिलचस्पी हिंदी में हो।

प्रिंटर काम नहीं करता, कुर्सियां टूटी,वेतन नहीं 
हिंदी ग्रंथ अकादमी के कर्मचारियों को दो ढाई महीने की देरी से ही वेतन मिलता है। पिछले साल तो कई महीनों से वेतन न मिलने की वजह से आंदोलन तक करना पड़ा था। इस महीने भी सैलेरी नहीं मिली है। यहां कोई स्थाई सेटअप नहीं है। 5 लोगों का स्टाफ है जो कि अस्थाई है। प्रभार पर डायरेक्टर और डिप्टी डायरेक्टर्स हैं। परमानेंट इस अकादमी को चलाने वाला कोई अफसर नहीं है। कार्यालय का प्रिंटर महीनों से खराब है, कभी टेलीफोन काम करता है, कभी नहीं। विक्रय सहायक के चैंबर में रखी कुर्सी भी टूटी हुई मिली। ये अकादमी इस वजह से शुरू की गई थी ताकि उच्च शिक्षा में होने वाली अंग्रेजी पढ़ाई को हिंदी में भी कराया जा सके।

कुछ अच्छा भी 
इन हालातों, फंड की कमी और संसाधनों की कमी के बीच भी हिंदी ग्रंथ अकादमी ने 2006 से अब तक 136 किताबें छापी हैं। इनमें स्टूडेंट्स के कोर्स, प्रतियोगी परीक्षाओं और साहित्य से जुड़ी किताबें हैं। बिना मन के दफ्तर आने वाले कर्मचारियों ने कहा कि यदि सही तरीके से यहां काम होता तो और भी बेहतर काम कर पाते। मगर ये तब तक मुमकिन नहीं जब शासन-प्रशासन ध्यान न दे।

क्या कहते हैं अफसर 
हिंदी ग्रंथ अकादमी के संचालक एपी खैरवार से अकादमी की इस बदहाली के बारे में पूछा गया। उन्होंने कबूला कि यहां कोई काम-काज फिलहाल नहीं हो रहा है। न ही हिंदी के प्रचार को लेकर कोई कार्यक्रम। उन्होंने कहा कि इस अव्यवस्था को दूर करने मंत्रालय को लिखा है, उम्मीद है जल्द कुछ हो। खैरवार ने कहा कि डिपार्टमेंट में परमानेंट डायरेक्टर नियुक्त किए जाने की चर्चा है, जल्द इस पर काम होगा। फंड भी तीन-चार सालों से नहीं मिला, वो भी शायद अब मिले।
 
			





