knn24.com/धरती के हर कोने में भारत के प्रवासी अपनी धाक जमा रहे हैं। विदेश मंत्रालय के मुताबिक, 210 देशों में लगभग 1.34 करोड़ NRI हैं। संयुक्त राष्ट्र यह संख्या पौने दो करोड़ बताता है। सीमाओं के परे नाम कमाने वालों में सबसे ताजा जिक्र कमला हैरिस का हो रहा है। वह आज अमेरिका की वाइस प्रेसिडेंट बन जाएंगी। भारतीय प्रवासियों का यह सफर कभी आसान नहीं रहा। इस स्टोरी में हम इसी सफर के बारे में बता रहे हैं।
230 साल पहले शुरू हुआ था यह सफर
मद्रास (अब चेन्नई) का रहने वाला एक शख्स सबसे पहले अमेरिका पहुंचा था। साल था 1790। वह उसी (चेन्नई के) इलाके से था, जहां श्यामला गोपालन का परिवार रहता है। श्यामला गोपालन यानी वाइस प्रेसिडेंट इलेक्ट कमला हैरिस की मां। अब 230 साल बाद श्यामला की बेटी वाइस प्रेसिडेंट बनने जा रही हैं। यह अमेरिका में भारतीयों के लिए एक लंबा सियासी सफर भी है।
इस दौरान उन्होंने बहिष्कार झेला, उन्हें नागरिकता देकर वापस ले ली गई, भेदभाव बर्दाश्त करना पड़ा। इसके बावजूद उन्होंने खुद के लिए अधिकार हासिल किए। लोकल काउंसिल से सरकार तक में चुने गए। वाइस प्रेसिडेंड चुने जाने से लेकर कई बड़ी कंपनियों के हेड बने। नोबेल पुरस्कार जीते और यूनिवर्सिटीज का नेतृत्व किया।
इस तरह से वे सबसे ज्यादा आमदनी और एजुकेशन हासिल करने वाला समुदाय बन गए। अब भारतीय प्रवासी अमेरिका की आबादी में एक प्रतिशत से थोड़ी ज्यादा हिस्सेदारी रखते हैं। यह समुदाय सबसे तेजी से तरक्की कर रहा है।
पिछली सदी की शुरुआत में पहली लहर अमेरिका पहुंची
अमेरिका जाने वाले भारतीयों की पहली लहर में ज्यादातर सिख शामिल थे। पिछली सदी की शुरुआत में वे कनाडा से होकर अमेरिका पहुंचे थे। वहां वे खेतों और लकड़ी की मिलों पर काम करने गए थे।
दूसरे एशियाइयों की तरह उन्हें भी नस्लीय हमले झेलने पड़े। तब 1917 के इमिग्रेशन ऐक्ट के तहत एशियाइयों के आने पर रोक लगा दी गई थी।
- 18वीं सदी के एक कानून ने उन्हें कुछ सीमाओं के साथ नागरिकता दी थी। 1910 के बाद कोर्ट ने कुछ भारतीयों को नागरिकता देने की इजाजत दी, क्योंकि उन्हें कोकेशियान समुदाय का सदस्य माना जाता था।
- 1923 के आखिर में भगत सिंह थिंद की नागरिकता छीन ली गई। वह अमेरिकी सेना में रह चुके थे। यह फैसला सुनाया गया कि वे कोकेशियान हो सकते हैं, लेकिन भारतीयों को श्वेत नहीं माना जा सकता है। इस दौरान कई भारतीयों को दी गई नागरिकता रद्द कर दी गई। हालांकि, उन्हें देश में रहने दिया गया।
- 1935 में भगत सिंह थिंद को दोबारा नागरिकता मिल गई। एक नए कानून ने जातीय पहचान की परवाह किए बिना सभी फॉर्मर सर्विस पर्सनल को नागरिकता दे दी। इस बीच कई भारतीय पढ़ाई, कारोबार और रिलीजस टीचर्स बनकर अमेरिका गए। उनमें से कुछ वहीं के हो गए। इनमें से एक दिलीप सिंह सौंड थे। वे बर्कले में कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी से PhD करने गए थे।
- 1946 में एक कानून के जरिए 100 भारतीयों को एनुअल इमिग्रेशन कोटा मिल गया। इससे दिलीप सिंह अमेरिकी नागरिक बन गए। 1956 में उन्हें US हाउस ऑफ रिप्रेजेंटेटिव्स के लिए चुना गया। ऐसा करने वाले वे पहले भारतीय-अमेरिकी बने। बाद में भी उन्होंने दो बार चुनाव जीता।
- 1960 में अमेरिका में सिविल राइट्स मूवमेंट चला। इसने अमेरिकी सिस्टम में शामिल नस्लवाद की ओर ध्यान दिलाया। 1965 में कानून बनाकर इमिग्रेशन मशीनरी को खत्म कर दिया गया। पड़ोसी देशों को छोड़कर सभी देशों के 20,000 इमिग्रेंट्स के लिए एनुअल कोटा कर दिया गया। इससे भारतीय प्रवासियों के लिए रास्ता खुल गया।
- हायर एजुकेशन और कारोबार से जुड़े लोगों को इसमें तवज्जो मिली। हजारों प्रोफेशनल्स भारत से अमेरिका पहुंचने लगे। पढ़ाई के लिए जाने वालों को ग्रीन कार्ड या इमिग्रेशन वीजा मिला। उनके बाद हजारों रिश्तेदारों को सिस्टम के तहत अमेरिका आने इजाजत मिल गई।
90 के दशक में आई दूसरी लहर
भारतीयों की अगली बड़ी लहर 90 के दशक के आखिर में आई। तब Y2K बग को ठीक करने के लिए कंप्यूटर प्रोफेशनल्स की बहुत जरूरत पड़ी। Y2K एक वायरस था, जिसने नई सदी शुरू होने पर हजारों कंप्यूटर सिस्टम के लिए खतरा पैदा कर दिया था।
इनमें से अधिकतर के लिए H1-B अस्थायी वर्क वीजा रास्ता बना। टेक्नोलॉजी में अपनी साख बनाने के बाद कई और भारतीय इसी वीजा पर अमेरिका की ओर चल दिए। कई हजार लोगों को ग्रीन कार्ड मिल गए। आखिरकार कई एच 1-बी वीजाधारकों की जिंदगी अधर में लटक गई, क्योंकि इमिग्रेशन कोटा पर दबाव बहुत ज्यादा बढ़ गया।