आदिवासी बाहुल्य कोरबा जिले में आदिवासियों के कंधे पर पैर रखकर कुछ धनाढ्य लोगों के आगे बढ़ने का क्रम जारी है। पेसा कानून लागू होने वाले कोरबा जिले में इस कानून का पालन कराने वाले ही इसका उल्लंघन करने वालों का साथ देने में जुटे हों तो इस तरह की गड़बड़ी को अंजाम देना कोई मुश्किल काम नहीं।पेसा कानून के तहत आदिवासियों की जमीन का उपयोग करने के लिए ग्राम सभा में प्रस्ताव पास कराना अनिवार्य है। ग्राम सभा को धता बताकर और चुनिंदा लोगों को साथ लेकर जहां आदिवासी क्षेत्र की जमीनों का औद्योगिक कार्यों के लिए अधिग्रहण और उपयोग बदस्तूर हो रहा है तो दूसरी तरफ शहरी क्षेत्र में नियमों को ताक पर रखकर आदिवासियों की जमीन लीज पर ली जा रही हैं। आदिवासियों को थोड़ा बहुत लाभ का लोभ देकर अपने फायदे के लिए पक्ष में करना आसान रहा है। हालांकि अभी के दौर में आदिवासी वर्ग के लोग कुछ जागरूक हो चुके हैं लेकिन पहले के दौर में आदिवासियों को अपनी बातों में उलझाना बड़ा आसान रहा है। ऐसे आदिवासियों की जमीनों को लीज पर लेकर बड़े-बड़े व्यावसायिक कांप्लेक्स, आवासीय कालोनियां बनाने का काम भी धनाढ्यों ने किया है। इसके बाद दुकानों/ कॉलोनियों के आवासों को बेचकर अथवा किराए में देकर एक मोटी रकम कमाई जा रही है। लीज पर जमीन देने वाले आदिवासियों के हक में क्या जा रहा है? यह तो वही बता सकते हैं। यह बड़ा ही आश्चर्य का विषय है कि आदिवासियों की जमीन को उनका आम मुख्तियार बन कर देखरेख का जिम्मा धनाढ्य वर्ग के लोग बड़ी आसानी से प्राप्त कर लेते हैं और इस तरह के प्रस्तावों को बिना किसी रोक-टोक के पूरा कराया जाता है। यह तो जिम्मेदार पदों पर बैठे संबंधित सरकारी अधिकारियों को देखना और समझना चाहिए कि आदिवासियों के हक का कहां उल्लंघन हो रहा है? यहां यह भी उल्लेखनीय है कि आदिवासियों के अलावा अन्य अति पिछड़े और पिछड़े जाति वर्ग के साथ-साथ ग्रामीणों की जमीनों को उनके मूल नक्शा से छेड़छाड़ कर अन्यत्र दर्शाने का भी खेल बड़े पैमाने पर मिलीभगत से होता आया है। कोरबा जिले में भी यह गोरखधंधा समय-समय पर उजागर होता रहा है। सरकारी जमीनों को निजी बनाकर बेचा जा रहा है। अब भला जब सरकार की जमीन सुरक्षित नहीं रह गई तो अति पिछड़ेपन का जीवन जी रहे आदिवासियों की जमीन कैसे सुरक्षित रह पाएगी?